ग्रेट ग्रेम 2.0: भारत की इकोनॉमी को फिर से पाने के लिए एक गुप्त दौड़

अंतर्राष्ट्रीय कार्पोरेट शक्तियों का एक बड़ा दल भारत से भारी संख्या में पैसा बाहर ले जा रहा है और आपको इसकी ख़बर तक नहीं लगने दी जाती (Credit: Pixabay)

रत्ना एवं नदीम सिराज

कोविड-19 की नई लहर। नई रोचक वेब सीरिज़। राजनीतिक यात्राएँ। बॉलीवुड में आत्महत्याएँ। नए स्मार्टफ़ोन चलन। भारत की चीन और पाकिस्तान से दुश्मनी। रशिया का यूक्रेन पर हमला। शोरगुल से भरे टी.वी. डिबेट। ऐसी बातों की सूची अंतहीन है जो आपको दिन-रात व्यस्त रखती हैं।

आप ऐसे समय में जी रहे हैं, जब आपके ऊपर अधिकतर ऐसी जानकारियों की बमबारी होती है जिनकी आपको कोई ज़रूरत नहीं है। जानकारी की अति से भरी यह बमबारी टी.वी., फ़ोन, इंटरनेट, अख़बार, पत्रिकाओं, रेडियो, स्कूल, मूवीज़, क़िताबों, थिंक टैंक्स, शोध पत्रों और एडवोकेसी ग्रुपों के माध्यम से होती है।

रोचक बात यह है कि सूचना के इस ओवरडोज़ में उस एक संवेदनशील विषय को शामिल नहीं किया जाता जिसके बारे में आपको असल में पता होना चाहिए कि आपका देश कैसे काम करता है। यह एक ऐसा विषय है जिसके बार में वैश्विक शक्तियाँ आपको अनभिज्ञ रखना चाहती हैं।

एक गुप्त परियोजना

यह विषय एक ऐसी परियोजना है जो भारत में पिछले कुछ दशकों से गुप्त रूप से चली आ रही है। यह कौन सी परियोजना है जिसके बारे में अंतर्राष्ट्रीय शक्तियाँ आपको भनक नहीं लगने देना चाहतीं? यह एक वित्तीय परियोजना है जो विदेशी कार्पोरेट शक्तियों की ओर से चलाई जा रही है ताकि धीरे-धीरे भारतीय अर्थव्यवस्था को अपने अधीन करते हुए इससे भारी पैसा खींचा जा सके।

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जी, आपने सही पढ़ा है। यह हमारी अनमोल अर्थव्यवस्था को भेदने की गुप्त परियोजना है। अंतर्राष्ट्रीय कार्पोरेट शक्तियों का एक बड़ा दल भारत से भारी संख्या में पैसा बाहर ले जा रहा है और आपको इसकी ख़बर तक नहीं लगने दी जाती। अब यह परियोजना विशाल पैमाने पर जारी है और अपनी पूरी गति में है।

जब 19वीं सदी में ब्रिटिश और रशियन एंपायर, सेंट्रल और साउथ एशिया के जियोपॉलिटिकल कब्ज़े के लिए आमने-सामने आए तो उनके इस टकराव को ग्रेट गेम का नाम दिया गया। आज भारत की इकोनॉमी को अपने अधीन करने की इस जियोपॉलिटिकल परियोजना को ग्रेट गेम 2.0 का नाम दिया जा सकता है।

मैं जानता हूँ कि यह आपको सुनने में किसी कान्सीपिरेसी थ्योरी जैसा लगेगा। ये कौन सी विदेशी शक्तियाँ हैं जो भारत की इकोनॉमी को अपने अधीन करना चाहती हैं, रीकोलोनाइज़ करना चाहती हैं। ये आधुनिक युग के एंपायर्स हैं। और ये मॉर्डन एंपायर्स क्या हैं? ये विशालकाय विदेशी कॉर्पोरेशन या मल्टीनेशनल कंपनियाँ हैं जो उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया के शक्तिशाली व्यावसायिक परिवारों से हैं।

रोचक बात यह है कि हमें कभी प्रत्यक्ष तौर पर नहीं बताया गया कि इतनी विशाल और आर्थिक परियोजना चल रही है, हम इस ऑपरेशन के साथ-साथ होने वाले प्रभाव पर चर्चा कर सकते हैं। जैसे महंगाई का बढ़ना, निर्धनता का और अधिक होना, नौकरियों की कमी, ग्रामीण क्षेत्रों में परेशानियों का बढ़ना, मुद्रा का अवमूल्यन और प्रशासनिक असफलताएँ।

 मेनस्ट्रीम न्यूज़ के समर्पित अनुयायियों और रूढ़िवादियों के लिए यह बात दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत की लोकप्रिय प्रेस हमारी इकोनॉमी में घट रही इस घटना के लिए आवाज़ नहीं उठाती या नहीं उठा सकती। मेनस्ट्रीम मीडिया इस परियोजना के पीछे छिपे लोगों की मदद कर रहा है ताकि जनता को उथली और मामूली बातों और ख़बरों में उलझा कर रखा जा सके।

वे इस आर्थिक उपनिवेशीकरण की ख़बर को ऐसी घटनाओं से जोड़ते हैं जिनका आपस में कोई संबंध नहीं है। इस तरह आप सभी बिंदुओं को सही तरह से जोड़ते हुए बिग पिक्चर नहीं देख सकते। मेनस्ट्रीम मीडिया अपने दर्शकों के जीवन में यह नकारात्मक भूमिका क्यों निभा रहा है? क्योंकि वह आपकी ओर नहीं, बल्कि उनके साथ है। मेनस्ट्रीम प्रेस विज्ञापनों, एडवेटोरियल, टाइ-अप, चंदे व आंशिक और पूर्ण स्वामित्व के रूप में इन विदेशी कॉर्पोरेट खिलाड़ियों से पैसा कमाता है।

हम कहना यह चाहते हैं कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अंधकार से भरे दिन एक बार फिर से हमारे सामने हैं। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1857 की क्रांति के बाद हमारा पीछा छोड़ दिया था पर ये आधुनिक युग की ईस्ट इंडिया कंपनियाँ फिर से भारत में लौट आई हैं। उन्होंने एक बार फिर से इस धरती पर अपने पैर जमा लिए हैं।

प्रत्यक्ष बनाम अप्रत्यक्ष

वह खुलेआम औपनिवेशीकरण का मामला था और अब छिपे रूप में नए सिरे से उपनिवेशीकरण या रीकोलोनाइजेशन हो रहा है। बस कैलेंडर के पन्ने बदले हैं।

वैसे, पहले समय में केवल एक नहीं बल्कि सात ईस्ट इंडिया कंपनियों ने भारत को लूटा था। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अलावा, डच ईस्ट इंडिया कंपनी, स्वीडिश ईस्ट इंडिया कंपनी, ऑस्ट्रियन ईस्ट इंडिया कंपनी, फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी, डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी और पुर्तगाली ईस्ट इंडिया कंपनी भी इसमें शामिल थे।

न्यू-एज कंपनियाँ अपने जियोपॉलिटिकल दबदबे और तेज़ मार्केटिंग हुनर के साथ, ऐसे टनों-टन गैर-ज़रूरी उत्पाद हमारे यहाँ ढेर करती रहती हैं जिनकी हमें कोई ज़रूरत नहीं है – या हम आसानी से उनका उत्पादन कर सकते हैं। विदेशी शक्तियाँ अपना सामान यहाँ अंबार लगाने के बाद भारत का बहुत सा पैसा बाहर ले जाती हैं। वे उस पैसे को सीधा अपने देशों के बैंकों में जमा कर देते हैं। फिर वे बैंक उस पैसे का अपनी इकोनॉमी में निवेश कर देते हैं जिससे वे विकसित हो कर फलते-फूलते हैं।

भारत से बाहर इस वित्तीय संपदा के हस्तांतरण के कारण, विदेशी कॉर्पोरेट शक्तियों के निजी देश दिन-ब-दिन अमीर हो रहे हैं और वे निरंतर अपनी निर्धनता का बोझ हमारे देश पर लाद रहे हैं। यह कोई रॉकेट विज्ञान नहीं। यह साधारण इकोनॉमिक्स है।

ब्रांड के लिए कट्टरता

इस विशाल आपॅरेशन के पीछे जो भी विदेशी बल कार्यरत हैं, आप उन्हें अच्छी तरह जानते हैं। ये ऐसी कंपनियाँ, संघ या ट्रस्ट हैं जिनके ब्रांड पूरे देश में छाए हुए हैं क्‍योंकि वे बहुत ही लोकप्रिय हैं, जिसके लिए विज्ञापनों की शक्ति को धन्यवाद देना होगा।

हम कुछ ईस्ट इंडिया कंपनियों का नाम ले कर उन्हें अपमानित नहीं करना चाहते और न ही ऐसा चाहते हैं कि विदेशी संस्कृति और लोगों के प्रति आपके मन में भय पैदा किया जाए। एंपायर डायरीज़ किसी भी तरह से विदेशी लोगों को नापसंद करने की नीति के खि़लाफ़ है और उसका मानना है कि सीमापार से भी संस्कृतियों और विचारों का आदान-प्रदान होना चाहिए।

हम इस जगह आपको एक स्पष्ट तस्वीर दिखाना चाहते हैं कि किस तरह चुपचाप भारतीय इकोनॉमी को आर्थिक रूप से क्षति पहुँचाने का खेल चल रहा है और इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। हम भारतीय नागरिकों को सचेत करना चाहते हैं कि यदि इसी तरह भारी पैमाने पर संपदा के हस्तांतरण की अनुमति दी जाती रही तो देश और अधिक निर्धन होता चला जाएगा।

निःसंदेह, हमें इस बात को मानना होगा कि भारत तकनीकी रूप से उपनिवेश नहीं है। हम अपना स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस मनाते हैं। हम अपने राजनीतिक नेता स्वयं चुनते हैं। हमारी अदालतों, नौकरशाही, पुलिस और सिविल सर्विस आदि को भारतीय ही चलाते हैं। भौतिक रूप से, हम आज़ाद हैं पर हमारी इकोनॉमी पर हज़ारों विदेशी कॉर्पोरेट खिलाड़ियों का नियंत्रण है।

 यह इकोनॉमिक रीकोलोनाइजेशन 1947 से घटने के इंतज़ार में था, जब हमने गैरकानूनी रूप से कब्जा करने वाले अंग्रेज़ों से राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल की। इसने 1990 के दशक के आरंभ में गति पकड़ी, जब वर्ल्‍ड बैंक और आईएमएफ जैसे विदेशी कॉर्पोरेशन और संगठनों के लिए भारतीय इकोनॉमी के दरवाज़े खोले गए। नतीजन, हज़ारों विदेशी व्यवसाय भारत की ओर दौड़े आए और अपनी दुकानें खोल लीं। हमने स्वयं ही अपनी इकोनॉमी के एक हिस्से को उपहार की तरह विदेशी कपंनियों और उनके समर्थकों को सौंप दिया।

3,291 विदेशी कंपनियाँ

अगस्त 2022, कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय ने खुलासा किया कि भारत में 3,291 विदेशी कंपनियाँ सक्रिय रूप से काम कर रही हैं, जबकि 5,068 कंपनियाँ रजिस्टर्ड हैं। ये 3,291 विदेशी कंपनियाँ तीन रूपों में काम कर रही हैं। उनमें से कुछ ने भारतीय मिट्टी पर औपचारिक रूप से ऑपरेशन चालू किए हुए हैं।

कुछ कंपनियों के स्थानीय कंपनियों से संबंध हैं और वे विदेश-नियंत्रित कंपनियों की तरह काम करती हैं। और कुछ कंपनियाँ छिपे रूप में काम करती हैं जिन्हें देख कर लगता है कि वे भारतीय कंपनियाँ हैं जबकि वे वास्तव में नहीं हैं। आप उनके दस्तावेज़ों से उनकी मौजूदगी का पता नहीं लगा सकते। उनके सिस्टम को इसी तरह बनाया गया है।

इनमें से अधिकतर मॉर्डन-डे एंपायर या विदेशी कॉर्पोरेट शक्तियाँ यूएस, चीन, ब्रिटेन, रशिया, जापान, साउथ कोरिया, जर्मनी, फ्रांस, कनाडा, आॅस्ट्रेलिया, सिंगापुर और स्विटज़रलैंड आदि जगहों से हैं।

किसी भी उद्योग को देखें और आपको उस जगह विदेशी कॉर्पोरेट खिलाड़ी अपना खेल खेलते दिखाई देंगे। भारतीय इकोनॉमी के कुछ क्षेत्रों में, विदेशी खिलाड़ियों का असर इतना ज़्यादा नहीं है; जबकि दूसरे क्षेत्रों में वे बड़े खिलाड़ियों की तरह विशाल भारतीय कंज्यूमर बेस पर अपना शासन चला रहे हैं।

फास्ट फूड, कपड़े, कोल्ड ड्रिंक्स, बैंक, गैजट, हेल्थकेयर, कारें, बीमा, खिलौने, कंफेक्शनरी, डिफेंस उपकरण, दवाएँ, ब्राउजर्स, सोशल मीडिया एप – भारतीय कपनियाँ अधिकतर इन सभी क्षेत्रों में विदेशी शक्तियों के आगे हार रही हैं। इनकी सबसे बड़ी सफलता की कहानी क्या रही है? वे अपने प्रभाव और आकर्षण के बल पर लाखों भारतीयों को समर्पित कर्मचारी और ग्राहक बनाने में सफल रही हैं।

आप सोच सकते हैं, अगर विदेशी कंपनियों ने भारत में व्यवसाय किया है तो इसमें बुरा क्या है? क्या उनकी वजह से नौकरियों के अवसर नहीं मिल रहे? क्या वे विज्ञापन नहीं ला रहीं? क्या वे टैक्स नहीं भर रहीं या नई चीज़ें खरीदने का मौका नहीं दे रहीं?

ये सभी दिखावटी योगदान हैं। ये वित्तीय संपदा के हस्तांतरण के कुल नकारात्मक प्रभावों के आगे कुछ भी नहीं हैं। यह उन कंपनियों के सीएसआर इवेंट की तरह है या वह चैरिटी है जो वे अरबपति टैक्स बचाने के लिए करते हैं। यह गणित सादा और सरल है। कमियों के आगे खूबियाँ बेहद कम हैं और मेनस्ट्रीम प्रेस आपको केवल अच्छाईयों और खूबियों की जानकारी देती है।

फ़िज़ी ड्रिंक्स, फ़ज़ी मैथ्स

यह सब क्या हो रहा है, इसे समझने के लिए हम एक उदाहरण का प्रयोग करेंगे। आप किसी लोकप्रिय विदेशी पेय पदार्थ का ही उदाहरण लें। आप इस केस स्टडी को हज़ार गुना करके समझा जा सकता है कि हम इस इकोनॉमिक रीकोलोनाइजेशन के कारण आर्थिक रूप से कितने भारी संकट में हैं।

अब मान लेते हैं कि वह लोकप्रिय विदेशी ड्रिंक पूरे भारत में बहुत पिया जाता है। उसे ख़ासतौर पर युवा पीढ़ी, खिलाड़ी, खाने-पीने के शौकीन लोग और शहरों से ले कर कस्बों तक हर जगह पिया जाता है।

विदेशी कंपनी भारत में जो भी सॉफ्ट ड्रिंक  की बोतल बना कर बेचती है, उससे उसे एक निश्चित मुनाफा होता है। उस बोतल से होने वाले मुनाफे का एक हिस्सा भारत सरकार के पास टैक्स के तौर पर जाता है। दूसरा हिस्सा विदेशी कंपनी भारत में अपने व्यवसाय में फिर से निवेश करती है ताकि उसका काम चलता रहे या उसके व्यवसाय का विस्तार हो सके। और उस मुनाफे का तीसरा हिस्सा (जो कि अक्सर सबसे बड़ा होता है), उस सॉफ्ट ड्रिंक की बोतल बनाने वाली कंपनी के देश में जाता है, जिस जगह उसका मुख्यालय है।

तो इस तरह, भारत में बनने वाली विदेशी सॉफ्ट ड्रिंक की बोतल से मिलने वाला पैसा विदेश तक जाता है। तकनीकी रूप से यह सारा पैसा विदेशी बैंकों को जाता है और इसमें से कुछ पैसा दुनिया भर के टैक्स हैवन्स में जमा हो जाता है।

अब यह देखें कि उस एक बोतल से मिलने वाले मुनाफे को लाखों बोतलों के मुनाफे में बदल दिया जाए। और अब यह सोचें कि विदेशी कंपनी हर दिन, हर सप्ताह, हर माह और हर साल कितनी बोतलें तैयार करके बेच रही है। उसके अपने देश में कुल कितना पैसा जमा हो रहा होगा-विदेशी बैंकों या विदेशी पुनःनिवेश ठिकानों पर कितना पैसा जा रहा होगा। तो बुनियादी तौर पर, भारत की आर्थिक संपदा इस तरह छीज रही है जैसे छलनी से पानी निकलता है और हम ऐसे पेय पदार्थों को अपना रहे हैं जिनकी हमें कोई आवश्यकता ही नहीं है। भारत से लगातार बाहर जाने वाली आर्थिक संपदा ही निरंतर इसे और निर्धन बना रही है।

दूसरों की निर्धनता का आयात

और भारत से विदेशों में आर्थिक संपदा के स्थानांतरण के साथ ही उन देशों की निर्धनता उसी मात्रा में भारत वापिस आ रही है। धन इधर से उधर जा रहा है और उनकी निर्धनता उधर से इधर आ रही है।

विदेशी कंपनियों के माध्यम से बाहर जाने वाला पैसा ही भारत में पैसे के निरंतर अभाव का कारण नहीं है। एक और माध्यम से हमारी संपदा विदेशों के बैंकों में जा रही है। बाहर से ऐसे उत्पाद और सेवाओं का आयात हो रहा है जिनकी कोई आवश्यकता नहीं है। हम अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की बात कर रहे हैं। अनिवार्य तौर पर, भारत दूसरे देशों से अधिक मात्रा में आयात करता है और निर्यात की मात्रा कम है।, नतीजन देश के वित्तीय संसाधन लगातार बाहर जा रहे हैं।

नवंबर 2022, भारत का ट्रेड बैलेंस 23.9 बिलियन डॉलर के घाटे पर था, जिसका मतलब है कि कुल आयात की मात्रा, कुल निर्यात की मात्रा से कहीं अधिक है। सितंबर 2022 में तो इसमें 29.2 बिलियन की रिकॉर्ड कमी दर्ज की गई।

इस तरह भारत के रीकोलोनाइजेशन की परियाजना, इन दो माध्यमों से पैसे को बाहर भेज रही है। एक, विदेशी कंपनियों द्वारा इस जगह से मिले मुनाफे का बाहरी बैंकों और उनके अपने देशों में निवेश हो रहा है। और दूसरे, भारत निर्यात की तुलना में अधिक मात्रा में आयात करता है।

एक अनुमान के अनुसार, 1 सीई से 1000 सीई तक के एक हज़ार वर्षों के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे बड़ी थी (Credit: Pixabay)

निर्भरता की थ्योरी (1949)

भारतीय इकोनॉमी में जो हो रहा है, उसके लिए एक रोचक थ्योरी कही जाती है। इसे डिपेन्डेंसी थ्योरी का नाम दिया गया है। इसमें बताया गया है कि भारत जैसे देश लगातार व्यापार में घाटा क्यों उठा रहे हैं। डिपेन्डेंसी थ्योरी का आरंभ 1949 में आरंभ हुए दो पत्रों से हुआ। उन्हें यूके के जर्मनी में जन्मे अर्थशास्त्री हैंस सिंगर और अर्जेंटीना के एक अर्थशास्त्री रॉल प्रेबिश द्वारा लिखा गया था।

इस थ्योरी के अनुसार, कुछ देश निरंतर निर्धन ही बने रहेंगे क्योंकि सबसे उत्तम संसाधन हमेशा निर्धन देशों से संपन्न और ताकतवर देशों की ओर प्रवाहित होते रहेंगे।

इस थ्योरी के अनुसार, प्रभावशाली देशों की ओर से कम प्रभावशाली देशों पर यह असर हमेशा बना रहेगा क्योंकि ये दोनों पक्ष एक साझे वैश्विक तंत्र में गुंथे हैं। नतीजन कमजोर देश चाह कर भी स्वयं को ताकतवर देशों के चंगुल से आज़ाद नहीं कर सकते, जो उनका ट्रेड और एफडीआई जैसे आर्थिक साधनों के बल पर शोषण करते रहते हैं।

यह थ्योरी हमें यह समझने में सहायक है कि भारतीय देश इतने निर्धन क्यों हैं- क्योंकि हमारी अर्थव्यस्था एक ऐसे वैश्विक ढांचे में गुंथी है जिसमें व्यापार की सारी शर्तें पूरी तरह से ताकवतर देशों के हक़ में हैं जो स्वयं को विकसित देश कहते हैं।

जब भारत संपन्न था

अब हम हज़ार वर्ष पीछे चलते हैं, जब भारत भूमि किसी का उपनिवेश नहीं थी। वर्ष 1000 सीई में, भारतीय उपमहाद्वीप में बहुत सारे एंपायर एक साथ शासन कर रहे थे। एक अनुमान के अनुसार, 1 सीई से 1000 सीई तक के एक हज़ार वर्षों के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे बड़ी थी। 1000 सीई में, भारत की अनुमानित वैश्विक जीडीपी सहभागिता 28.9 प्रतिशत थी, जो अपने-आप में उल्लेखनीय है। आंकड़े बताते हैं कि उस समय यह क्षेत्र पूरे ग्रह पर सबसे संपन्न माना जाता था।

सात सदियों के बाद, जब मुगल 1700 के दौरान सत्ता में आए, तो मुगल भारत और चीनी साम्राज्य मिल कर ग्रह की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ बने – इनमें से प्रत्येक के पास वैश्विक जीडीपी का 25 प्रतिशत था।

हालांकि, जब पश्चिमी दुनिया के हमलावर आए तो भारतीय उपमहाद्वीप की यह संपन्नता धीरे-धीरे कम होने लगी – सबसे पहले, 1757 से 1857 तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का राज रहा; और उसके ठीक बाद, 1857 से 1947 तक अंग्रेजों का शासन नब्बे वर्ष तक रहा।

जब भारत को 1947 में अंग्रेज़ हमलावरों से आज़ादी मिली, तो इसकी वैश्विक जीडीपी सहभागिता दयनीय रूप से 3 प्रतिशत थी – यह कोलोनाइजेशन का प्रत्यक्ष परिणाम था। इस समय, भारत की वैश्विक जीडीपी सहभागिता 3 प्रतिशत से थोड़ी अधिक है – जो उसके उज्ज्वल अतीत से कहीं कम है। सादे शब्दों में, आज का भारत ग्राहकों का ढेर और विदेशी खिलाड़ियों के लिए सस्ते श्रम का केंद्र है जिसका वे मनमाने तरीके से शोषण करते हैं।

आइए, पिछले तीस साल के दौरान मिलने वाले इस शॉक ट्रीटमेंट के संदर्भ में कुछ और तथ्यों को भी देखते हैं। हम भारतीय इकोनॉमी के उदारीकरण, प्राइवीटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन की बात कर रहे हैं जो नब्बे के आरंभिक दशक में आरंभ हुई थी।

आंकड़े दिखाते हैं कि भारत में 1991 में बेरोजगारी की दर 5.45 प्रतिशत थी। अब 22 वर्ष के महती सुधारों के बावजूद बेरोजगारी की दर 8.5 प्रतिशत है। यही चलन युवा बेरोजगारी के संदर्भ में भी देखा जा सकता है। युवा बेरोजगारी दर 1991 में 16.6 प्रतिशत था। अगले 28 वर्षों में, यह 2019 में 23.34 प्रतिशत तक आ गई।

भारत में आय में होने वाली असमानता की दर भी चैंकाने वाली गति से बढ़ रही है। जनवरी 2020 में, ऑक्सफेम ने एक विचलित करने वाला अध्ययन प्रकाशित किया। इसने पाया कि भारत के सबसे अमीर 1 प्रतिशत लोगों के पास, 953 मिलियन लोगों की संपदा का चार गुना है जो जनसंख्या के निचले तल से 70 प्रतिशत लोगों में गिने जाते हैं।

इन आंकड़ों से साबित होता है कि विदेशी कॉर्पोरेट खिलाड़ी धीरे-धीरे भारत के बाजारों का हिस्सा तो बने पर उसके कारण न तो नौकरियों के नए अवसर पैदा हुए और न ही जनता की आर्थिक हालत में सुधार हुआ। इसके बजाए, इसने आर्थिक संसाधनों का शोषण करते हुए भारतीय इकोनॉमी को हानि पहुँचाई है।

शब्दों की जादूगरी

भारतीय जनता बिना किसी संदेह के इन विदेशी कॉर्पोरेट खिलाड़ियों का स्वागत कर रही है, इसके प्रमुख कारणों में से एक यह है कि ये धोखे में रखने वाली शब्दावली का प्रयोग करते आए हैं। जब विदेशी कॉर्पोरेशन भारत में प्रवेश की तैयारी में थे, तो मास मीडिया ने जाने-अनजाने में कुछ निश्चित शब्दों का प्रयोग करना आरंभ कर दिया।

विदेशी पूंजी से होने वाले आर्थिक हमले को आड़ में रखने के लिए एफडीआई शब्द का प्रयोग किया गया। स्टेट-ओन्ड संपत्तियों की फायर सेल के लिए प्राइवीटाइजेशन शब्द का प्रयोग हुआ। फ्री ट्रेड में कुछ भी फ्री नहीं था क्योंकि इसका मतलब था कि ताकतवर देश, वित्तीय संपदा हस्तांतरण के बदले में भारत में अपने उत्पाद का अंबार लगा सकते थे (आपको डिपेन्डेंसी थ्योरी याद है न?)

जनता के आगे ग्लोबलाइजेशन शब्द परोसा गया ताकि उनके मन में विदेशी ब्रांडों के लिए भय पैदा न हो जिनके उत्पाद और सेवा के दाम बहुत अधिक थे और उनमें से अधिकतर ऐसे थे जिनकी हमें आवश्यकता ही नहीं थी। और लिबरलाइजेशन शब्द ने कई जगह सरकारी नियंत्रण को हटाने में मदद की जो देशी व्यवसायों को बनाए रखने के लिए लागू किया गया था।

पिछले कुछ दशकों के दौरान, भारतीय इकोनॉमी का यह रीकोलोनाइजेशन बहुत दूर तक आ गया है। यह वल्र्ड बैंक, आईएमएफ और जीएटीटी के जन्म के साथ आरंभ हुआ था, जो बाद में चल कर डब्लयूटीओ बने। अब हम फिर से वर्तमान में लौट आते हैं। हम इस समय भारत में रीकोलोनाइजेशन का एक और ही स्तर देख रहे हैं जो तथाकथित तकनीकी प्रगति से प्रेरित है। सोशल मीडिया बूम असल में आधुनिक युग के टैक एंपायर्स का मामला है जिनमें से अधिकतर कैलीफोर्निया की जानी-मानी सिलीकॉन वैली से हैं और भारत के सारे डिजीटल लैंडस्केप पर कब्ज़ा कर रहे हैं।

जागने का समय है

कॉर्पोरेशंस, एमएनसीज़, संघ, एंटरप्राइज़, ट्रस्ट आदि – आप इन्हें किसी भी नाम से पुकारें, ये आधुनिक युग की ईस्ट इंडिया कंपनियाँ हैं। और अब भी, भारत इनका केंद्र बिंदु है।

भारतीयों के राष्ट्रीय त्योहार जैसे 23 जनवरी, 26 जनवरी और 15 अगस्त हमें याद दिलाते हैं कि हम इस योग्य हैं कि अपनी इकोनॉमी को विदेशी नियंत्रण से आज़ाद कर सकें। हमारे स्वतंत्रता सेनानी जैसे नेताजी सुभाष चंद्र बोस आदि पहले भी यह कार्य बहादुरी से कर चुके हैं। हम इसे फिर से कर सकते हैं। और इसे पाने के लिए, हमें बंदूक, गोली, हिंसा या विदेशी संस्कृतियों से भय व अरुचि की ज़रूरत नहीं है। बस हमें इतना करना है कि इस बारे में अपनी सोच को बदलें कि हमें क्या खरीदना है और क्या नहीं खरीदना है।

हमें इस निरंतर चलने वाले आर्थिक रीकोलोनाइजेशन के लिए जागना होगा और उन हज़ारों-लाखों स्थानीय व्यवसायियों को उनके पैरों पर खड़े होने में मदद करनी होगी जो अपने विदेशी प्रतियोगियों से लोहा ले रहे हैं। अगर हम केवल भारतीय उत्पाद और सेवाओं का प्रयोग करना आरंभ कर दें, तो यह न्यू एज स्वदेशी आंदोलन अपने-आप ही बाकी सारी चीज़ों को सही कर देगा।

अगर हमारे देसी व्यवसायों को सहयोग देने के लिए देसी का चलन का लागू हो गया, तो आधुनिक युग की ये ईस्ट इंडिया कंपनियाँ अपना महत्त्व खो देंगी, देशी कंपनियों के साथ हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ मज़बूत होगी, हमारी वित्तीय संपदा हमारे ही देश में रहेगी और भारत फिर से संपन्न और आत्म-निर्भर होगा।

इस ग्रेट गेम 2.0 की बाजी को पलटने और भारतीय इकोनॉमी को बचाने में मदद करने के लिए, सबसे पहले हमें नींद से जागना होगा। वह नींद जो मेनस्ट्रीम मीडिया की लोरी की देन है।

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