
8 फरवरी, 2023: जब भारत पिछले वर्ष, अंग्रेज़ हमलावरों के हाथों मिली आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ का जश्न मनाने की तैयारी में था, उसी समय के आसपास एक ऐसा समाचार सामने आया जो वाकई आपको चिंता में डाल देगा: देश का व्यापार घाटा, जुलाई 2020 तक रिकॉर्ड 30 बिलियन डॉलर तक आ गया था।
वस्तुओं के आयात की तुलना में वस्तुओं का निर्यात बहुत ही धीमी गति से हो रहा है, भारत के वाणिज्य मंत्रालय की ओर से जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार, निर्यात की विकास दर में भारी कमी पाई गई है जो चिंता का विषय है। इंजीनियरिंग उत्पाद 2.08 प्रतिशत तक कम हुए हैं, रत्न और आभूषण 5.2 प्रतिशत तक कम हुए हैं और फार्मा और तैयार वस्त्रों का निर्यात घट कर 1.05 प्रतिशत और 0.6 प्रतिशत क्रमशः रह गया है।
यही विनाश आने वाले महीनों में भी जारी रहा, जिसमें केवल हल्का सुधार पाया गया। पिछले साल, सितंबर माह में व्यापारिक घाटा बढ़ कर 25.71 बिलियन डॉलर पर आ गया और अक्टूबर माह में यह बढ़ कर 26.91 बिलियन डॉलर हो चुका था।
16 जनवरी, 2023 को, इंटरनेशनल ट्रेड डाटा रिलीज़ हुआ, जिसने दिखाया कि दिसंबर 2022 में भारत का मर्चेंडाइज़ एक्सपोर्ट कम हो कर 12.2 प्रतिशत पर आ गया। भुगतान का नेगेटिव बैलेंस 23.76 बिलियन डॉलर पर था, जबकि वह पिछले साल नवंबर में 21.06 बिलियन डॉलर था।
भारतीय इकोनॉमी व्यापार संबंधी जिन झटकों से जूझ रही है, इन्हें जानने के बाद हमारे सामने एक विचलित करने वाला प्रश्न आता है। तीन चैथाई सदी से एक स्वतंत्र देश होने के बावजूद भारत अब भी ऐसी स्थिति में क्यों है जहाँ इसका निर्यात, आयात की तुलना में कम है? यह स्थिति भारत के वित्तीय संसाधनों को तेज़ी से बाहर भेजने का कारण बन रही है – वे वित्तीय संसाधन जो देश में रहते तो उन्हें अल्पपोषित बच्चों को भोजन करवाने या स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं को अद्यतन करने में इस्तेमाल किया जा सकता था।
भारतीय इतिहास के किसी भी छात्र से पूछें, वह ‘ड्रेन ऑफ वेल्थ’ यानी संपदा की निकासी को अच्छी तरह समझता है जिसने विस्तार से पढ़ा होगा कि अवसरवादी अंग्रेज़ कोलोनाइज़र्स ने किस तरह बेरहमी से आर्थिक शोषण की नीति लागू की ताकि भारत के उद्योग-धंधों पर वार करते हुए, इसके वाणिज्यिक क्षेत्रों को नष्ट किया जा सके और इंफ्रास्ट्रक्चर में आत्मनिर्भरता की कोई झलक न बचे।
यहाँ हम कहना यह चाहते हैं कि आजादी के 75 वर्ष भी इस लेख को बदलने में असफल रहे हैं। हम लगातार अपने निर्यात से कहीं अधिक आयात क्यों कर रहे हैं और इस तरह लगातार हमारी वित्तीय संपदा छलनी से निकलते पानी की तरह बह रही है? हम कई मायनों में वाकई स्वतंत्र हैं। हमारे नेता स्थानीय रूप से चुने जाते हैं, जो हमारी नौकरशाही को चलाते हैं, पुलिस और डिफेंस के लोग हममें से ही चुने जाते हैं, हमारी न्याय व्यवस्था की बनावट भी देसी ही है। पर जब नेशनल इकोनॉमी की बात आती है तो क्या यह कहानी पूरी तरह से अलग हो जाती है? हमारी इकोनॉमी और बाज़ार,उन क्षेत्रों की तरह आत्मनिर्भर क्यों नहीं, जिनमें हम पूरी तरह से स्वतंत्र हैं?
एक मनपसंद डंपिंग यार्ड
सातवें ट्रेड पॉलिसी रिव्यू ऑफ इंडिया में डब्लयूटीओ (वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन)- वैश्विक व्यापार नियामक की प्रायः आलोचना की जाती है कि यह प्रभावशाली आयातकेंद्रित देशों के पक्ष में निर्णय लेता है – यह भी लक्ष्य किया गया कि भारत, उत्पादों के डंपिंग यार्ड के रूप में दुनिया का सबसे आकर्षक स्थल माना जाता है।
इस जगह आप डब्लयूटीओ सैक्रेटेरियट से पूरी तरह से स्वतंत्र एक विस्तृत रिपोर्ट पढ़ सकते हैं, जो भारत की सातवीं व्यापार नीति समीक्षा के बारे में है।‘ एडवांस लाइसेंस स्कीम (एडवांस ऑर्थोराइजेशन स्कीम) या फिर ईओयूज़/एक्सपोर्ट प्रोसेसिंग ज़ोन (ईपीजैड) यूनिट के अधीन आयातित माल पर एंटी-डंपिंग ड्यूटीज़ नहीं लगाई जा सकतीं, चाहे ये आयात ऐसे व्यापारिक साझेदारों की ओर से ही क्यों न हों, जो डंपिंग कर रहे हैं या उन पर छानबीन हो रही है।’ पेज 63 पर दी गई रिपोर्ट के अनुसार।
भारत के पीआईबी (प्रेस इंफरमेशन ब्यूरो) की ओर से 7 जनवरी 2021 को एक हैंडआउट जारी किया गया जो कहता है कि आर्थिक रूप से ताकतवर देश चाहते हैं कि नई दिल्ली एंटी-डंपिंग साधनों के मामले में अपने प्रयास कम कर दे। ‘भारतीय बाज़ार के तेज़ी से बढ़ते आकार को देखते हुए, शीर्षस्थ औद्योगीकृत और विकसित देश, भारत की व्यापार नीति में विशाल उदारीकरण चाहते हैं, ख़ासतौर पर कृषि जैसे क्षेत्रों में, ताकि इसकी तयशुदा व्यवस्था के साथ इंटरनेशनल मापदंडों का मेल कर सकें और एंटी-डंपिंग व ट्रेड-रैमेडी साधनों को अपने हक़ मे कर सकें।’ सातवें डब्लयूटीओ ट्रेड पॉलिसी रिव्यू पर पीआईबी हैंडआउट के अनुसार।
2016 में, ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनीवर्सिटी की ओर से आयोजित एक कांफ्रेंस मे, एएनयू स्कूल ऑफ कल्चर, हिस्ट्री और लैंग्वेज के डॉ. आसा डोरोन ने कहा, ‘भारत हमारे ई-वेस्ट के लिए डंपिंगयार्ड बन गया है। कंप्यूटर, फोन, टी.वी. और व्हाईट गुड्स तक, सब कुछ गैरकानूनी रूप से भारत में एक्सपोर्ट हो रहा है।
2015 यूएन एन्वायरमेंट प्रोग्राम के अनुसार, उस समय दुनिया का 90 प्रतिशत तक इलेक्ट्रॉनिक कचरा गैरकानूनी तरीके से भारत में जमा किया जा रहा थ ; यह प्रतिवर्ष घरेलू रूप से उत्पादित ई-वेस्ट के अनुमानित 1.8 मिलियन मैट्रिक टन से अधिक था। यूएनईपी के अनुसार, ‘इंटरपोल का अनुमान है कि एक टन ई-वेस्ट की कीमत 500 डॉलर के क़रीब है। इस गणना के हिसाब से, बिना दर्ज किए गए, अनौपचारिक और गैरकानूनी रूप से व्यापार द्वारा लाए ई-वेस्ट की दर वार्षिक 12.5 बिलियन डॉलर से 18.8 बिलियन डॉलर तक होगी।’
डब्लयूटीओः यह किसके लिए है?
डब्लयूटीओ समय-समय पर आलोचना का शिकार होता रहा है कि यह जियोपॉलिटिकली रूप से प्रभावशाली और औद्योगीकृत देशों जैसे यूएस और इसके जैसे ताकतवर देशों से आए विशाल कॉर्पोरेशनों के अलोकप्रिय कड़े आदेशों को मानता आया है। ये कॉर्पोरेशन भारत जैसे देशों की अर्थव्यवस्था को निशाने पर ले कर व्यापारिक सौदेबाजी करते आए हैं।
एक बहुत ही रोचक इकनोमिक थ्योरी है, जिसके बारे में मुख्यधारा मीडिया के दायरों में बहुत कम बात की जाती है – जो बताती है कि भारत में क्या हो रहा है। इसे डिपेन्डेंसी थ्योरी (निर्भरता की थ्योरी) कहते हैं, जो मूल कारण को स्पष्ट करती है कि भारत जैसे देश लगातार व्यापार में घाटा क्यों उठा रहे हैं। डिपेन्डेंसी थ्योरी का आरंभ 1949 में आरंभ हुए दो पत्रों से हुआ। उन्हें यूके के जर्मनी में जन्मे अर्थशास्त्री हैंस सिंगर और अर्जेंटीना के एक अर्थशास्त्री रॉल प्रेबिश द्वारा लिखा गया था।
थ्योरी के अनुसार कुछ देश आर्थिक रूप से परेशानी में रहेंगे क्योंकि महत्त्वपूर्ण संसाधन हमेशा सीमांत (निर्धन और कूटनीतिक तौर पर कमजोर देश) से मर्म या आंतरिक भाग (संपन्न और जियोपॉलिटिकल रूप से संपन्न देश) तक प्रवाहित होते रहेंगे।
इस थ्योरी के अनुसार ताकतवर देशों की ओर से, कम प्रभावशाली देशों को अपने अधीन करके उनका पैसा हथियाने का असंतुलन संभवतः इसलिए है क्योंकि दोनों विरोधी पक्ष एक आम वैश्विक तंत्र में गहराई तक बसे हैं। इस अति जियोपॉलिटिकल जुड़ाव के कारण, कमजोर देश ताकतवर देशों के पंजों से नहीं छूट पाते, जो व्यापार जैसे आर्थिक साधनों के बल पर उनका वित्तीय शोषण करते हैं।
अगर दोबारा डब्लयूटीओ की बात करें तो इसका एजेंडा, समझौतों को लागू करने के लिए काम करने का तरीका और विवादों का निपटारा आदि कुछ इसी तरह किए जाते हैं जिससे आर्थिक और सैन्य रूप से ताकतवर देशों के हित साधे जा सकें। इन प्रभावशाली देशों की तुलना में जिन देशों की अर्थव्यवस्था निशाने पर होती है, जैसे कि भारत, वे हमेशा स्वयं को दोषी पाते हैं जो खेल के नियम तोड़ते पाए जाते हैं।
नीति अध्ययन के लिए बने एक यूएस संस्थान के लिए लिखते हुए एलीन कवा का कहना है, ‘द लीस्ट डेवलप्ड कंट्रीज़ (एलडीसीज़), दुनिया के ट्रेड सिस्टम में हाशिए पर हैं और उनके उत्पाद निरंतर भाड़े में वृद्धि का सामना कर रहे हैं।’
यह कोई संयोग मात्र नहीं कि दुनिया की दूसरी सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश में विशाल कंज़्यूमर बेस है, जिसकी संख्या धीरे-धीरे रोज़ बढ़ रही है। कुदरतन, चीन, यूएस, ब्रिटेन, जापान, फ्रांस, जर्मनी, सिंगापुर, दक्षिणी कोरिया, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशो में अपने व्यवसायों के मुख्यालय बनाने वाले अपनी ओर से जायज-नाजायज, हर तरह की रणनीतियों का पालन करते हैं ताकि सिस्टम को अपने अनुकूल रख सकें। नतीजा? भारत का इंपोर्ट बिल, देश की मुख्यधारा मीडिया के सामने खुल कर नहीं आता और न ही कभी प्राइमटाइम सुर्खियों का हिस्सा बनता है। यह तभी संभव होता है जब इसके साथ कोई उथला राजनीतिक एजेंडा जुड़ा हो।
यहीं से हमारे सामने एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण मसला आता है – इंपोर्ट बिल में वृद्धि या व्यापार में घाटे का असर, भारत के आम लोगों पर प्रभाव क्यों डालता है, ख़ासतौर पर, सबसे अधिक संवेदनशील वर्ग? अर्थशास्त्री जनक राज, शरत ढल और राजीव जैन ने इसका उत्तर दिया जिन्होंने आयात और दामों के बीच एक कड़ी को खोजा।
‘इंपोर्टेड इन्फ्लेशन: द एवीडेन्सिस फ्रॉम इंडिया’, नामक पत्र में अर्थशास्त्रियों ने निष्कर्ष निकाला है कि भारत में मंदी पर आयात की कीमतों, पूंजी प्रवाह और विनियम दर का प्रभाव है ….।’ आयात दामों में उतार-चढ़ाव, घरेलू मंदी पर औसतन 1 से 2 प्रतिशत का असर रखता है। अगर आयात के दामों में 5 प्रतिशत की बढ़ोतरी होती है तो घरेलू दामों पर उसका 1 से 1.5 प्रतिशत प्रभाव आता है।’ अध्ययन के अनुसार।
भारत के निर्धनतम लोगों के बढ़ते हुए वित्तीय संकट को देखते हुए विशेषज्ञ प्रायः विचार करते हैं कि कहीं हमारा देश एक दिन अभावग्रस्त अफ्रीकी देशों की सूची में न आ जाए। यदि हमने इंटरनेशनल ट्रेड के माध्यम से भारतीय वित्त के बाहर की ओर होने वाले प्रवाह पर ध्यान नहीं दिया तो हो सकता है कि देर-सवेर यह एक हकीक़त बन जाए। जियोपॉलिटकली रूप से ताकतवर देश प्रायः अपने व्यापार रिकॉर्ड और इकोनॉमी को साफ दिखाने के लिए इसी हुनर का इस्तेमाल करते हैं।
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