
कॉलम
डॉ. अमिताभ बैनर्जी
कई देशों में, एक नई कोविड लहर के आने की रिपोर्ट आई, जिनमें ख़ासतौर पर चीन का नाम आया। भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय ने 20 दिसंबर 2022 को सारे राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों के नाम एक पत्र निकाला, जिसमें कहा गया कि भारत ने कोविड के अनुरूप व्यवहार तथा पाँच-सूत्रीय रणनीति; टेस्ट-ट्रेक, ट्रीट और वैक्सीनेट के माध्यम से कोविड वायरस के प्रसार पर काबू पा लिया है।
इस वर्ष जून में जारी किए गए इस पत्र में आगे लिखा था कि कोविड-19 की संशोधित निरीक्षण रणनीति के लिए कौन सी गाइडलाइन्स का पालन किया जाए। जिसमें पहले से वायरस का पता लगाना, रोगी को अकेले में रखना, परीक्षण और संभावित रोगियों के मामलों का समय से प्रबंधन करना शामिल था ताकि नए सार्स-सीओ वी-2 वेरीएंट के आने की पहचान और पुष्टि हो सके।
पत्र में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को यह सलाह भी दी गई थी कि वे तयशुदा प्रयोगशालाओं के माध्यम से जीनोम सीक्वेंसिंग भी करें ताकि नए वेरीएंट की समय रहते पहचान करने में आसानी हो, जिससे अनिवार्य जन स्वास्थ्य से जुड़े कदम उठाने में आसानी हो सके।
नेशनल पब्लिक पॉलिसी थिंक टैंक नीति आयोग के एक सदस्य, डॉ० वी.के. पॉल ने जनता से आग्रह किया है कि वह बंद स्थानों पर चेहरे पर मास्क का प्रयोग करे और सावधानी के तौर पर कोरोनावायरस वैक्सीन लगवाए। इसके साथ ही, सरकार ने तय किया है कि वह देश के हवाई अड्डों पर इंटरनेशनल यात्रियों की रेन्डम टेस्टिंग भी फिर से शुरू करेगी।
क्या ये सभी बिना सोचे-समझे दी जाने वाली प्रतिक्रियाएँ साक्ष्यों पर आधारित हैं? यह महामारी हमारे साथ पिछले तीन साल से बनी हुई है। हमारे पास इन कामों के लिए पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं, बशर्ते हम उनकी ओर ध्यान दें। इसकी बजाए हम क्या कर रहे हैं ? हमारे पास ऐसे नौकरशाही पत्र हैं जो उन्हीं असफल रणनीतियों को दोहरा रहे हैं जो बहुत सारे कष्ट और उसकी वजह से होने वाले नुकसान का माध्यम रही हैं।
विज्ञान को दबा कर, कर्मकांड के लिए जगह बनाई जा रही है। हम महामारी के आरंभिक चरणों में होने वाली भूलों के लिए छूट दे सकते हैं क्योंकि उस समय पर्याप्त मात्रा में प्रमाण मौजूद नहीं थे। हालांकि, अगर प्रमाण मौजूद होने के बाद भी यही भूलें बार-बार दोहराई जाती रहीं और वायरस भी नया न हो, तो इस तरह की भूलों को आप क्या नाम देना चाहेंगे?
आइए, हम इन निर्देशकों के पास उपलब्ध प्रमाणों पर ध्यान देते हैं। हमारा देश लोगों का महासमुद्र है जिसमें लोग बहुत ही भीड़-भाड़ वाली जगहों पर रहते हैं। इनमें से अधिकतर लोग पिछले तीन साल के दौरान, कोरोनावायरस के सभी रूपों से प्राकृतिक तौर पर होने वाले संक्रमण से उबर चुके हैं। यहाँ तक कि महामारी के आरंभिक चरण में भी, ‘टेस्ट, ट्रेस और आइसोलेट’ का मंत्र इंफेक्शन के प्रसार पर कारगर नहीं रहा था। इस रणनीति से बहुत कम इंफेक्शन ही पहचान में आ पाए थे। यह बहुत ही महंगी, समय लेने वाली, श्रमसाध्य और असुविधाजनक प्रक्रिया थी जो वायरस के ेलक्षणहीन लोगों पर भारी पड़ी।
यहाँ याद रखना भी महत्त्व रखता है कि जून 2021 में इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की ओर से हुए सर्वेक्षण में भी दिखाया गया कि 6.7 प्रतिशत भारतीयों के शरीर में एंटीबॉडीज़ थीं। इससे ही अनुमान लगा सकते हैं कि 92 करोड़ से अधिक लोगों ने प्राकृतिक तौर पर होने वाले संक्रमण के बाद ही रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित की – और इनमें से बहुत थोड़ी संख्या वैक्सीन से रोगप्रतिरोधक क्षमता पाने वालों की रही। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उस समय तक केवल 5 प्रतिशत भारतीय जनंसख्या ही कोरोनावायरस वैक्सीन की दोनों खुराकें ले सकी थी।
जून 2021 तक, कोरोनावायरस की ‘टेस्ट, ट्रेस और आइसोलेट’ की रणनीति के माध्यम से, केवल तीन करोड़ मामले पहचाने गए थे, जिनमें से 4 प्रतिशत उस समय छिपे हुए थे। हमारी सबसे बेहतर कोशिशों के बावजूद, हम समुदाय में 96 प्रतिशत से चूक गए।
इन आंकड़ों को देखते हुए कहा जा सकता है कि ‘टेस्ट, ट्रेस और आइसोलेट’ की यह औपचारिकता संक्रमण की जांच करने में नाकाम रही। इसने केवल भय और अपवाद को जन्म दिया और आला अधिकारियों के हाथों आम जनता का शोषण हुआ। पूरी जनसंख्या के बीच फैली दहशत के सेहत पर बहुत बुरे असर हो सकते हैं। इसी तरह, हवाई अड्डों पर विदेशों से आने वाले यात्रियों की वायरस जांच करना ऐसा ही होगा मानो हम भूसे के ढेर में सुई खोज रहे हों, इससे यात्रियों को असुविधा होगी और वे आसानी से शोषण का शिकार हो सकते हैं।
यूएस सीडीसी (सेंटर फॉर डिजीज़ कंट्रोल एंड प्रीवेंशन) के पीयर-रिव्यूड पेपर ने पाया कि कोविड-19 के कारण जिन 540,667 लोगों को अस्पताल में भर्ती करवाया गया, उनमें मोटापे के बाद बेचैनी और भय से जुड़े डिसऑर्डर जोखिम के सबसे बड़े कारक थे, जिनके कारण कोरोनावायरस रोग से मौतें हुईं।
इस प्रमाण और भारतीय अनुभव के खि़लाफ़, दूसरी लहर में भय के कारण जो मेडिकल भगदड़ मची, उससे भी अनेक मौतें हुईं। अधिकारियों की ओर से वाकई ऐसे निर्देश जारी करना गैरजिम्मेदारी से भरा काम था। चैबीसों घंटे चलने वाले मीडिया ने झट से इन घटनाओं को लोगों के बीच पहुँचा कर दहशत की लहर कई गुना कर दी जो बहुत ही घातक सिद्ध हुई, जैसा कि हमने अपने देश में दूसरी लहर के दौरान देखा।
वहीं दूसरी ओर, सीरोसर्वे ने, पिछली छिपे हुए इंफेक्शन की पहचान के साथ हमारे देश में जो ‘लो इंफेक्शन फैटीलिटी रेट’ स्थापित किया, वह 0.05 प्रतिशत के लगभग था, जबकि दूसरे अध्ययन के अनुसार यह 0.17 प्रतिशत के लगभग था।
कम मृत्यु दर वाले ये आंकड़े जनता के बीच प्रसारित होने चाहिए ताकि वह अपने डर, दहशत और घबराहट से छुटकारा पा सके। ऐसे सकारात्मक संदेशों के बल पर, लोगों का जन स्वास्थ्य संस्थानों में खोया हुआ भरोसा लौटेगा, जो इस समय पूरी दुनिया में बहुत कम है।
निःसंदेह, दर्द को कम करने के ऐसे प्रयास, उन लोगों के लिए हानि का कारण होंगे जो डर को ही अपना आधार बना कर, अपने उत्पाद बेचते हुए मुनाफा कमाना चाहते हैं। नए वेरीएंट की पहचान के लिए जीनोमिक निरीक्षण भी महंगा और निरर्थक अभ्यास है, जैसे ‘टेस्ट, ट्रेस और आइसोलेट’ था।
कोरोनावायरसों के दौरान परिवर्तन होना एक आम बात है। प्रसारित हो रहे चारों कोरोनावायरसों के कारण कॉमन कोल्ड होता है, जो मूल सार्स-सीओ वी-2 से कम गंभीर होता है। एक बार किसी व्यक्ति को इनमें से किसी भी वायरस के कारण जुकाम हो जाए तो वह स्थायी तौर पर भविष्य में होने वाले सर्दी-जुकाम के लिए इम्यून नहीं होता। रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है या व्यक्ति दूसरे कोरोनावायरसों के कारण अन्य परेशानियों का सामना कर सकता है। वैसे भी, कॉमन कोल्ड के वायरस लगातार परिवर्तित होते रहते हैं, उनके लिए कोई प्रभावी वैक्सीन तैयार करना असंभव होगा, जो सभी मौजूदा वायरस से बचाव कर सके। यदि ऐसी कोई वैक्सीन बन भी गई तो इससे पैदा होने वाली रोग प्रतिरोधक क्षमता लंबे समय नहीं टिक सकेगी।
अगर सार्स-सीओ वी-2 भी दूसरे कोरोनावायरसों की तरह पेश आए तो कुछ और विश्वास करने का कोई कारण नहीं बचता, तब भी संभवतः, हम कोई प्रभावी और लंबे समय तक असर दिखाने वाली वैक्सीन नहीं बना सकेंगे, जैसा महामारी के दौरान रिकॉर्ड समय में हड़बड़ाहट के बीच किया गया और कई वैक्सीनें बना कर लागू की गईं।
दक्षिण अफ्रीका में मिला ओमीक्रोन वेरीएंट, महामारी में बेहतरी के लिए अहम बिंदु था, तब यह रोग काफी हद तक आम सर्दी-जुकाम की तरह हल्का हो गया था। यहाँ तक कि वैक्सीनों के अगुआ, बिल गेट्स को भी यह मानना पड़ा कि ओमीक्रोन कोविड-19 के खि़लाफ़ रोग प्रतिरोधक क्षमता पैदा करने में वैक्सीनों से बेहतर था।
इसके बावजूद, वर्ल्ड मीडिया और विशेषज्ञों ने ओमीक्रोन के आने को सनसनीखेज बनाने में कोई कसर नहीं रखी और पूरे जोश के साथ बूस्टर लगवाने की सलाहें देने लगे। यूके और यूएस जैसे देशों ने तत्काल प्रतिक्रिया देते हुए व्यापार और यात्रा पर पाबंदी लगा दी, उन्होंने बहुत कम प्रभाव वाले रोगों के साक्ष्यों को पूरी तरह से नज़रंदाज़ कर दिया और दक्षिण अफ्रीका में इस वेरीएंट के आने की वजह से न तो लोग अस्पतालों में भर्ती हुए और न ही कोई जानें गईं।
पाबंदियों के बावजूद ओमीक्रोन को फैलने से नहीं रोका जा सका पर पहले से संघर्षरत अफ्रीकी इकोनॉमी को ठेस लगी। वैश्विक मेडिकल-राजनीतिक समुदाय ने इस तथ्य को उपेक्षित कर दिया कि दक्षिण अफ्रीका में बहुत कम वैक्सीनेशन के बावजूद, ओमीक्रोन वेरीएंट किसी तरह की लहर पैदा करने में असफल रहा था।
मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण रखने के कारण, चाहे मनुष्य चाहें न चाहें, कुदरत सभी जीवों को जीवित रहने का समान अवसर देती है। जीवित बने रहने के लिए, सभी सजीव प्राणी, कुदरत के अनुकूलन के सिद्धांत -डार्विन के सिद्धांत का पालन करते हैं। ये अनुकूलन परिवर्तनों, प्रत्युत्तर देने में हुई भूलों और महामारी के दौरान हुई मास वैक्सीनेशन में चुनाव के दबाव के कारण हुए।
सफल परजीविता के सिद्धांतों के अनुसार, ऐसी भूलें वायरस और इंसान, दोनों के लिए ही लाभदायक होती हैं। ऐसी भूलें जो वायरस को औसतन बने रहने के अनुकूल बनाती हैं और इसके साथ ही उनमें से कुछ प्राकृतिक चुनाव की इस विकासमूलक दौड़ में पिछड़ जाते हैं। एक जानलेवा वायरस लंबे समय तक नहीं चलता, वह एक दुर्भाग्यपूर्ण मेजबान के कारण नष्ट हो जाता है जो एक घातक संक्रमण का कारण बनता है।
यहाँ तक कि गंभीर लक्षण पैदा करने वाला वेरीएंट भी लंबे समय तक नहीं टिकेगा क्योंकि रोगी स्वयं को दूसरों से अलग कर लेंगे और उनके बीच घुलेंगे-मिलेंगे नहीं। संक्रमण का अवसर न मिलने के कारण उनमें मौजूद वायरस समय के साथ नष्ट होगा। उससे होने वाली विकृति बनी रहेगी जो चीन से चांदनी चौक तक दिखेगी, वे उन वेरीएंट्स में से होंगे जो इतने उग्र नहीं होंगे। उनके लक्षण बहुत कम या फिर न के बराबर होंगे।
शायद ऐसे हल्के वेरीएंट्स से संक्रमित रोगी लोगों में मिलें तो वायरस दूर-दूर तक जा सकता है। वायरस जितना अधिक फैलेगा, उसकी घातकता उतनी ही कम होती जाएगी। वहीं दूसरी ओर, इस तरह के वायरस जनता के बीच कहीं अधिक रोग प्रतिरोधक क्षमता पैदा करेंगे। उनका संक्रमण न के बराबर होगा और उनसे होने वाली मौतों की संख्या भी नगण्य होगी।
इजराइल में होने वाले अध्ययनों ने स्थापित किया है कि वैक्सीन से मिलने वाली इम्यूनिटी की तुलना में कुदरती रोग प्रतिरोधक क्षमता 13 से 27 गुना अधिक मजबूत है और इसके साथ यह लाभ भी होगा कि यह कुदरती रोग प्रतिरोधक क्षमता, मौजूदा वेरीएंट से मिलेगी जबकि वैक्सीन से मिलने वाली रोग प्रतिरोधक क्षमता, पिछले वेरीएंट के कारण होगी जिससे मौजूदा वेरीएंट आसानी से छूट जाएगा।
हमारी भारी जनंसख्या वाले देश में इन सक्रियताओं के कारण ही महामारी पर रोग लग सकी। वह बेहूदे और गैर-असरदार हस्तक्षेपों का नतीजा नहीं था। क्या हमें चिंता करने की ज़रूरत है? क्या हमें अंधाधुंध तरीके से होने वाले मास वैक्सीनेशन को होने देना चाहिए? क्या हमें अपने घमंड में, यह मान लेना चाहिए कि केवल मानवीय हस्तक्षेप ही प्राकृतिक चुनावों के प्राकृतिक नियमों को नीचा दिखा सकते हैं और इसके बाद वायरस के साथ एक शांत सह-अस्तित्व पाया जा सकता है?
महामारी के शुरुआती दौर में, निष्फल गणितीय मॉडलों ने क़यामत के दिन की ग़लत भविष्यवाणी की, जिससे लोगों ने अपनी ओर से कठोर कदम उठाए और इसके साथ-साथ होने वाले नुकसानों के अलावा हमारी इकोनॉमी को भी भारी धक्का लगा। जिस समय महामारी थमने को थी, उस समय जीनोमिक सीक्वेंसिंग और निगरानी के कारण लोगों में दोबारा डर पैदा हुआ और फिर वही अतार्किक आपत्तिजनक हस्तक्षेप सामने आए।
जीनोमिक स्टडीज़ को शैक्षिक अभ्यास होना चाहिए, जबकि नीति बुनियादी हालात के अनुसार तय होनी चाहिए जैसे अस्पतालों और आईसीयूज़ में कितने गंभीर मामले आए। वायरसों के नए-नए रूपों का पीछा करना कुछ ऐसा ही होगा मानो आप जंगल में हिरण का पीछा कर रहे हैं। ऐसे हज़ारों बदलाव अपने-आप कुदरती तरीके से होते रहते हैं, जबकि इनमें से कुछ ही संसाधनों पर आधारित गहन साधनों से पकड़ में आते हैं।
जीनोमिक निगरानी के साथ किसी वेरीएंट की पहचान करना और उससे डर पैदा करना ऐसा ही होगा मानो आप घोड़े को बाँधने के बाद, अस्तबल का दरवाज़ा बंद कर रहे हैं। कोई भी नया वेरीएंट पहचान में आने से पहले ही सूक्ष्म रूप में सारे समुदाय में प्रसारित हो चुका होता है।
प्रकृति बहुत धीरे-धीरे असरदार तरीके से पर्यावरणीय संतुलन प्राप्त करती है, यह इंसानों की तरह बहुत शोरगुल, प्रचार और शेखियों के बीच यह काम नहीं करती, जिनके अधिकतर काम बाद में व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं। इसके लिए एक विवेकपूर्ण नीति यह होगी कि व्यक्तिगत स्तर पर संपूर्ण शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त किया जाए क्योंकि यह महामारी सहविकृतियों की महामारी साबित हुई, और इसके साथ ही हमारे स्वास्थ्य के इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार पर भी काम होने चाहिए, जो देश में दूसरी लहर के दौरान सबके सामने अपने असली रूप में सामने आए।
कम घातक और तेज़ी से रूप बदलने वाले किसी वायरस का व्यर्थ पीछा करना छोड़ देना चाहिए। खेद की बात है, अधिकतर विशेषज्ञ लगातार लोगों को बूस्टर लगवाने के लिए कहते रहे, जो कि बिना किसी तर्क या प्रमाण के किया जा रहा था, क्योंकि वे बूस्टर पिछले वेरीएंट्स से बनाए गए थे। जब विज्ञान बुनियादी बातों पर ध्यान दिए बिना आगे आता है तो उसमें कर्मकांडों की ओर लौटने की प्रवृत्ति पाई जाती है। हालांकि धर्म में अपनाए जाने वाले कर्मकांड अधिकतर सौम्य होते हैं और आत्मा को सांत्वना प्रदान करते हैं, विज्ञान के ये कर्मकांड हमेशा ऐसे सौम्य नहीं होते क्योंकि ऐसे हस्तक्षेपों में अल्पकालीन दुष्प्रभावों के साथ अनिश्चितकाल तक बने रहने वाले दीर्घकालीन नुकसान जैसे सक्रिय तत्त्व भी पाए जाते हैं।
और लॉकडाउन व सामाजिक दूरी जैसे अंधाधुंध कदम, किसी प्रभाव के प्रमाण के अभाव में, निर्धनों के लिए अधिक कष्टों व आर्थिक हानियों की वजह बनते हैं।
(डॉ० अमिताभ बैनजी, एमडी, एक क्लीनिकल महामारीविद्, प्रोफेसर और पुणे के डी वाई पाटिल मेडिकल कॉलेज में कम्यूनिटी मेडिसिन प्रमुख हैं। उनके पास फील्ड महामारीविद् के रूप में, भारतीय सशस्त्र बलों का दो दशकों से अधिक का अनुभव है। उन्होंने 2000-2004 तक पुणे के आर्म्ड फोर्सिज़ मेडिकल कॉलेज में मोबाइल एपीडेमिक इन्वेसटीगेशन टीम का संचालन किया था, तब उन्होंने कई आउटब्रेक्स की छानबीन की थी। उन्हें ट्राईबल मलेरिया और कठोर क्षेत्रों में रह रहे सिपाहियों पर उसके प्रभाव जैसे कार्य के लिए पुरस्कृत किया गया।)
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